Doraha


Back after a short break. Sharing a piece of poetry below by Javed Akhtar. He penned it down for his daughter Zoya.

It was shared to me by one of the few persons I admire.

ये जीवन इक राह नहीं
इक दोराहा है

पहला रस्ता बहुत सरल है
इसमें कोई मोड़ नहीं है
ये रस्ता इस दुनिया से बेजोड़ नहीं है
इस रस्ते पर मिलते हैं रिश्तों के बंधन
इस रस्ते पर चलने वाले 
कहने को सब सुख पाते हैं
लेकिन
टुकड़े टुकड़े होकर 
सब रिश्तों में बंट जाते हैं
अपने पल्ले कुछ नहीं बचता
बचती है बेनाम सी उलझन
बचता है सांसों का ईंधन
जिसमें उनकी अपनी हर पहचान
और उनके सारे सपने
जल बुझते हैं
इस रस्ते पर चलनेवाले
ख़ुद को खोकर जग पाते हैं
ऊपर-ऊपर तो जीते हैं
अंदर-अंदर मर जाते हैं
 
दूसरा रस्ता बहुत कठिन है
इस रस्ते में कोई किसी के साथ नहीं है
कोई सहारा देनेवाला हाथ नहीं है
इस रस्ते में धूप है 
कोई छांव नहीं है
जहां तस्सली भीख में देदे कोई किसी को
इस रस्ते में ऐसा कोई गांव नहीं है
ये उन लोगों का रस्ता है
जो ख़ुद अपने तक जाते हैं
अपने आपको जो पाते हैं
तुम इस रस्ते पर ही चलना
 
मुझे पता है 
ये रस्ता आसान नहीं है
लेकिन मुझको ये ग़म भी है
तुमको अब तक 
क्यूं अपनी पहचान नहीं है